Volume: 50 50 2025

  • Title : भारतीय नारी : गौरव, गरिमा और महिमा
    Author(s) : प्रो. रुबी ज़ुत्शी
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  • Title : कश्मीरी की लोकप्रिय रामायण: रामावतारचरित
    Author(s) : डॉ. शिबन कृष्ण रैणा
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  • Title : सेठ गोविन्ददास के नाटकों में गाँधीवाद
    Author(s) : डॉ. शगुफ्ता नियाज़
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    हिन्दी नाटककार की हैसियत से सेठ गोविन्ददास बीसवीं शताब्दी के नाटककार हैं उन्होंने पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, समस्यामूलक तथा जीवनीपरक नाटक लिखें उनके बताए आदर्श हमारे वर्तमान समय की भी आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति का नवीनीकरण अर्थात् गाँधीवाद का प्रभाव पुष्ट रूप में उभरा है। सेठ गोविन्ददास उस आर्य परम्परा के साहित्यकार हैं, जो जीवन को आध्यात्मिक लक्ष्य पर केन्द्रीभूत करके लोक यात्रा करते हैं। आध्यात्मिकता के कारण ही सामयिक घटनाओं को एक उज्ज्वल आदर्श के ‘शेड’ से प्रकाशित करना इस परम्परा के साहित्यकारों का प्रयत्न रहा है। अपने देश की वर्तमान सार्वजनिक भाषा में यह परम्परा गाँधीवाद के नाम से जानी जाती है।

  • Title : कश्मीर के आलंकारिक आचार्य
    Author(s) : डॉ. भारतेंदु कुमार पाठक, एवं डॉ. वनीत कौर
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  • Title : श्रीरामचरितमानस की भाषा का भाषावैज्ञानिक अध्ययन
    Author(s) : डॉ. आलोक कुमार सिंह
    KeyWords : श्रीरामचरितमानस, भाषावैज्ञानिक, भाषा प्रयोग, शब्द, अवधी, ग्रंथ।
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    श्रीरामचरितमानस एक महाकाव्य है जो सन् 1574 ई. में संत तुलसीदास द्वारा लिखा गया था। यह काव्य मुख्य रूप से अवधी भाषा में लिखा गया है, जो कि उत्तर भारत में बोली जाने वाली एक प्रमुख भाषा है। श्रीरामचरितमानस की भाषा का विशेष महत्व है। इसमें सरलता और अभिव्यक्ति की अद्वितीयता है। तुलसीदास ने इस काव्य को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए सरल, सुगम और संवेदनशील भाषा का प्रयोग किया है। भाषा में सुधा, गीति, छंद, और भावों का सम्मिलन है, जो इसे एक अत्यन्त प्रभावशाली और साहित्यिक अनुभव बनाता है। इस काव्य में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है। तुलसीदास ने साहित्यिक समृद्धि के लिए भाषा के विविधता का सशक्त उपयोग किया है। श्रीरामचरितमानस में भाषा की सादगी, व्यावसायिकता, और उत्तम व्याकरणिक गुणधर्मों का ध्यान देने से यह एक महत्वपूर्ण साहित्यिक और भाषाई कीर्ति हासिल करता है। श्रीरामचरितमानस की भाषा ने व्यावसायिकता के साथ ही रस, भावना और धार्मिकता को भी सुंदरता से प्रकट किया है। इस ग्रंथ का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन करने से न केवल भाषा की विविधता और उसकी सौंदर्यता का पता चलता है, बल्कि उस समय के सांस्कृतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य को भी समझा जा सकता है। इस महाकाव्य की भाषा, जो अवधी है उस पर भाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन करना अत्यंत रोचक है। अवधी की विशेषताएं, तुलसीदास के भाषा प्रयोग, और उनके द्वारा निर्मित शैली इस ग्रंथ को विशिष्ट बनाते हैं। यह ग्रंथ भाषावैज्ञानिक अध्ययन के लिए भी एक महत्वपूर्ण स्रोत है। इसमें भाषा का उपयोग, शैली, व्याकरण, शब्दावली और वाक्य निर्माण के कई पहलू हैं। यह ग्रंथ उस समय की सांस्कृतिक, सामाजिक, और धार्मिक परिप्रेक्ष्य को प्रतिबिम्बित करता है और हिन्दी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

  • Title : कश्मीर में स्थित बौद्ध धर्म स्मारक
    Author(s) : डॉ. अमृता सिंह
    KeyWords : कश्मीर की संस्कृति, बौध धर्म, स्मारक, प्राचीन परंपरा
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    हिमालय की गोद में समाई विश्व की अद्भुत व सुंदरतम कश्मीर घाटी को प्रकृति ने बड़ी सहजता से संवारा है, तो वहीं यह क्षेत्र आध्यात्म सम्पदा से भी भरपूर है। शैव मत, बौद्ध धर्म, इस्लाम की साँझी संस्कृति का यह क्षेत्र मिश्रित संस्कृति के विभिन्न आयामों से रू-ब-रू करवाता है। धर्म, दर्शन, साहित्य और ज्ञान की भूमि रही कश्मीर घाटी को ऋषि भूमि या शारदा पीठ भी कहा जाता था। विद्या की देवी माता शारदा की भूमि कश्मीर के संदर्भ में कहा जाता है कि जब प्राचीन काल में बच्चे की विद्या आरंभ की जाती थी तो बच्चे को कश्मीर की ओर मुँह कराकर बिठाया जाता था। इस संदर्भ में एक प्रसिद्ध श्लोक है “नमस्ते शारदे देवि कश्मीरपुर वासिनी, त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि में।”1 अर्थात कश्मीर में विराजने वाली माँ शारदा, आप हमें विद्या का दान दें। बौद्ध संस्कृति का कश्मीर से गहरा संबंध है। बौद्ध धर्म शास्त्रीय कश्मीरी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण भाग था जिसका वर्णन कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिनी तथा नीलनाग के उपासकों के ग्रन्थ नीलमाता पुराण में मिलता है।

  • Title : कश्मीर की आदि संत कवयित्री लल्लद्यद व एकत्व की अवधारणा
    Author(s) : डॉ. मुदस्सिर अहमद भट्ट
    KeyWords : कश्मीरी संस्कृति, एकत्व, शैव-दर्शन, त्रिक-दर्शन, शिष्टाचार, सामाजिकता, वाख, समता, समानता, सम्मानता
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    वितस्ता घाटी कई दृष्टियों से आकर्षण एवं विश्लेषण का केंद्र रही है। यह भूमि न केवल आध्यात्म, दर्शन तथा चिंतन की साक्षी रही है अपितु यहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य की अद्वितीय, अतुलनीय छटा भी दृष्टिगत होती है। यहाँ विश्व की प्राचीनतम भाषा के आदि विद्वान, भाषाविद्, आचार्यों की परंपरा रही हैं। वास्तव में यह धरती भारतीय काव्य-शास्त्र की जन्मभूमि है। अतः यहाँ संत कवियों, ऋषियों, मुनियों और सूफियों ने जन्म लिया है। तदनुसार यहाँ की सामाजिक व्यवस्था एवं सांस्कृतिक धरोहर इन महात्माओं से प्रभावित रही है। निश्चित रूप से इनकी वाणी और उपदेशों ने समता, समानता, एकता, सद्भावना और शिष्टाचार का संचार किया है। चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में बौद्ध धर्म और हिन्दुओं के त्रिक-दर्शन से कश्मीर की जीवन-पद्धति निर्मित हुई थी। उसका इस्लामी विचारधारा के साथ तीव्र संघर्ष भी हुआ। एक ओर जहाँ प्राचीन विश्वास, आस्थाएँ और परम्पराएँ थीं दूसरी ओर इस्लाम के नवीन दर्शन का प्रदार्पण हो रहा था। सामान्य जन इन दोनों मतों के बीच उलझ रहा था, अस्थिरता तथा अव्यवस्था की ओर समाज जा रहा था। इस संवेदनशील समय में कई पथ-प्रदर्शकों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है जिनमें संत कवयित्री रूपभवान, ललद्यद और हब्बा खातून का नाम उल्लेखनीय है। इस आलेख में ललेश्वरी के वाखों का विवेचन-विश्लेषण किया जाएगा और एकात्मवाद की अवधारणा के विभिन्न आयामों की व्याख्या की जाएगी।

  • Title : हिमाचल प्रदेश की मन्दिर वास्तुकला
    Author(s) : डॉ. सुरेश शर्मा
    KeyWords : हिमाचल प्रदेश वास्तु शैली, वास्तुकला नागर शैली, शिखर शैली, पहाड़ी वास्तु शैली, काष्ठ नक्काशी पैगोडा शैली, नक्काशी गर्भगृह गुम्बद शैली
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    हिमाचल प्रदेश उत्तर भारत का एक प्रसिद्ध राज्य है। प्राचीन समय से हिमाचल को देवताओं का स्थान "देवभूमि" के नाम से जाना जाता थाI महाभारत, पदमपुराण और कनिंघम जैसे धर्म ग्रन्थों में हिमाचल का विवरण मिलता है। हिमालय पर्वत की शानदार ऊंचाई, अपनी विहंगम सुन्दरता और आध्यात्मिक शांति की आभा के साथ देवताओं का प्राकृतिक घर के सामान प्रतीत होता है। पूरे प्रदेश में दो हज़ार से ज़्यादा मंदिर हैं। उच्च पर्वत मालाओं और पृथक घाटियों का राज्य होने के नाते, मंदिर वास्तुकला की कई अलग-अलग शैलियों का विकास किया और यहाँ पर नक्काशीदार पत्थर शिखर, पैगोड़ाशैली के धार्मिक स्थल, बौद्ध मठों की तरह मंदिर या सिक्ख गुरुद्वारा है। उनमें से तीर्थ यात्रा के महत्वपूर्ण स्थान है और हर साल देश-भर से हज़ारों श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं।

  • Title : मानव तस्करी की समस्या को बयां करती हिंदी आदिवासी कहानियाँ
    Author(s) : नेहा यादव
    KeyWords : मानवता, तस्करी, सामाजिक समस्या, आदिवासी, अधिनियम, हिंदी कहानी साहित्य
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    स्वाभाविक मानवीय जीवन को त्यागने और सभ्य बनने का ढोंग करते-करते मनुष्य वस्तुओं से आगे बढ़कर इंसानों की खरीद-फरोख्त में पूरी तरह से रम चुका है। उसके लिए इंसान और वस्तु में कोई फर्क नहीं रह गया है। आए दिन अखबारों के पन्ने मानव तस्करी की खबरों से भरे होते हैं। फिर भी ध्यान की बजाय उपेक्षा की श्रेणी में इनकी संख्या ज्यादा बढ़ रही है। आज यह समस्या पूरे विश्व को अपने चंगुल में जकड़ चुकी है। इस खरीद बेच का उद्देश्य शारीरिक शोषण, अंग निष्कासन, जबरन विवाह, बंधुआ मजदूरी आदि अपराध होते हैं। वर्ष 2017 में राजस्थान राज्य में ईंट भट्ठा कामगारों के अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और राजस्थान राज्यों के 40% से भी अधिक मौसमी कामगारों की भट्ठा मालिकों के प्रति देनदारी थी जो पूरे मौसम में कामगारों द्वारा अर्जित राशि से भी अधिक था। कुछ राज्यों में शोषणकारी ठेकेदारों जो बंधुआ मजदूरी में श्रमिकों को फंसा लेते थे। वे स्थानीय सरकारी अधिकारी अथवा राजनीतिक रूप से प्रभावशाली व्यक्ति हैं। कुछ मानव तस्करों ने बंधुआ मजदूरों के साथ गंभीर दुर्व्यवहार किया जिनमें वे लोग भी शामिल थे जिन्होंने अपनी वैध मजदूरी मांगी और कुछ बंधुआ मजदूरों की मानव तस्करों के कब्जे में मौत हो गई। मानव तस्कर 8 वर्ष की कम आयु के बच्चों का कृषि (नारियल, नील, अदरक और गन्ना) निर्माण घरों में काम करवाकर, परिधान, इस्पात और कपड़ा उद्योग (चर्मशोधन, चूड़ी और साड़ी बनाने वाली फैक्ट्रियां), भीख मांगना, अपराध करवाने, खाद्य प्रसंस्करण फैक्ट्रियों जैसे,( बिस्कुट, रोटी बनाने, मांस की पैकिंग करने और अचार बनाने, फूलों की खेती, कपास, जहाज का विखंडन करने और विनिर्माण ( तार और कांच) में जबरन मजदूरी करवाकर शोषण करते हैं।अनेक संगठनों ने पाया कि मानव तस्करी पीड़ितों के विरुद्ध शारीरिक हिंसा- बंधुआ मजदूरी और यौन मानव तस्करी दोनों रूपों में की गई जोकि भारत सहित विशेष रूप से दक्षिण एशिया में व्याप्त थी। भारतीय स्तर पर ज्यादातर इससे प्राभावित क्षेत्रों में बिहार, झारखंड,राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा आदिवासी बहुल राज्य रहें हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 23 व 24 इसके रोकथाम की बात करते हैं तो वहीं भारतीय दण्ड संहिता की धारा 370 व 370A मानव तस्करी के खतरे का मुकाबला करने हेतु व्यापक उपाय प्रदान करती है। धारा 372 व 373 वेश्यावृति के उद्देश्य से लड़कियों को बचाने व खरीदने से संबंधित है। IPTA(1956), POCSO आदि अधिनियमों की सक्रियता होने के बावजूद भी भारत अभी सुधार की स्थिति में कुछ बेहतर नहीं कर पाया है। यूनाइटेड स्टेट की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत को दूसरी श्रेणी में रखते हुए कहा गया है कि भारत तस्करी को खत्म करने के लिए न्यूनतम मांगों को पूरा नहीं कर पाया है जबकि इसे खत्म करने के लिए सरकार लगातार आवश्यक प्रयास करती रही। साथ ही जब बंधुआ मजदूरी की बात आती है तो यह प्रयास अपर्याप्त प्रतीत होते हैं। साहित्य की दुनिया ने भी इन समस्याओं पर अपनी दृष्टि फेरी हैं। यहां हम बात करेंगे आदिवासी क्षेत्रों में हो रही मानव तस्करी की घटनाओं के विषय में जिसके आधार में हैं वाल्टर भेंगरा तरुण की कहानी संगी, लसा, मक्कड़जाल, मंगल सिंह मुंडा की कहानी धोखा, रूपलाल बेदिया की कहानी अमावस्या की रात में भागजोगनी।

  • Title : सूर्यबाला की कहानी में अभिव्यक्त वृद्ध जीवन का द्वंद्व : समस्याएं और समाधान (विशेष संदर्भ: 'बाऊजी और बंदर' तथा 'दादी और रिमोट')
    Author(s) : कोमल कुमारी
    KeyWords : वृद्धावस्था, कमज़ोरी, वृद्ध, परायापन, बुजुर्ग, अकेलापन
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    "हम खुद को बरगद बनाकर जमाने भर को बाँटते रहे मेरे अपने ही हर दिन मुझको थोड़ा-थोड़ा काटते रहे।"1 ये है आज के समय का वृद्ध जीवन। हिंदी साहित्य में जहां एक ओर दलित जीवन, स्त्री जीवन, आदिवासी जीवन, किन्नर जीवन के बाद अब वृद्ध जीवन की भी धमक सुनाई देने लगी है। भारतीय परंपरा में बुजुर्गों को परिवार के छायादार वृक्ष के रूप में देखने की परंपरा रही है। वृद्ध व्यक्तियों की सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी परिवार के सदस्यों की होती है परंतु आज स्थितियां बदल रही है, मूल्य बदल रहे हैं। पारिवारिक ढांचा में बदलाव के कारण बुजुर्गों की समस्याएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है। नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के विचारों में असमानता से तनाव की स्थिति उत्पन्न हो रही है। अचानक आए परिवर्तन को पुरानी पीढ़ी स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं,इसलिए वह आक्रोशित व कुंठित होते रहते हैं। समाज तथा नई पीढ़ी ने वृद्ध व्यक्तियों को अनुपयोगी ,नकारा एवं निरर्थक सिद्ध कर दिया है। इन्हीं सारी समस्याओं का मूल्यांकन करना तथा उनके लिए उचित समाधान निकालना ही इस शोध पत्र का उद्देश्य है।

  • Title : हिंदी भाषा के विशेषण शब्दों में परिवर्तनीयता
    Author(s) : सीताराम गुप्ता
    KeyWords : अच्छा-ख़ासा, अनुनासिकांत, अपरिवर्तनीय, अरबी-फ़ारसी, आकारांत, आवारा, एकारांत, ख़स्ता, चुनिंदा, ताज़ा, दोचश्मी हे, नाकर्दा, परिवर्तनीय, बोसीदा, मस्ताना, लापता, विकार, विशेषण, विशेष्य, संजीदा, सविभक्तिक, हिंदी व्याकरण
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    हिंदी देश के एक विस्तृत भूभाग पर बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी की जितनी बोलियाँ, उपबोलियाँ व शैलियाँ हैं दुनिया की किसी भाषा में नहीं मिलतीं। यही कारण है कि हिंदी व्याकरण में अपवाद भी बहुत मिलते हैं। बोलियों अथवा उपबोलियों में भाषा की व्याकरणिक संरचना में अंतर होना स्वाभाविक है लेकिन मानक हिंदी में भी इस प्रकार के अंतर और अपवादों की कमी नहीं। किसी वाक्य में किसी शब्द का रूपांतरण हो जाता है तो उसी प्रकार की व्याकरणिक इकाई वाले दूसरे शब्दों का रूपांतरण नहीं होता अथवा भिन्न प्रकार से होता है। कई बार हम इसे अपवाद मान लेते हैं। कई बार अपवाद होते भी हैं लेकिन इसके मूल में प्रायः नियमों की सही जानकारी का अभाव ही होता है। इसके लिए शब्दों की सही व्युत्पत्ति व प्रकृति को जानना-समझना अनिवार्य है। हिंदी में संस्कृत के तत्सम शब्दों के अतिरिक्त तद्भव व देशज शब्दों के साथ-साथ विदेशी शब्द भी हैं। विदेशी शब्दों में उर्दू के माध्यम से हिंदी में आए अरबी और फ़ारसी के शब्दों की तो भरमार ही है जिनकी प्रकृति तत्सम व तद्भव शब्दों से भिन्न है। इस आलेख में विशेषण शब्दों की परिवर्तनीयता व अरबी-फ़ारसी के अपरिवर्तनीय विशेषण शब्दों पर विशेष रूप से विचार किया गया है। इससे न केवल विशेषण शब्दों का सही रूपांतरण करना आसान होगा अपितु पढ़ते समय अरबी-फ़ारसी के विशेषण शब्दों को पहचाना भी सरल हो जाएगा।

  • Title : नारी के प्रति नारी की संवेदनहीनता को दर्शाती ममता कालिया की कहानियां: माँ, उमस एवं शाल
    Author(s) : श्वेता रानी
    KeyWords : संवेदनहीनता, दयाहीनता, अमानवीयता, नारी-शोषण
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    संवेदना शब्द मूलतः संस्कृत के ‘संवेद’ शब्द से निर्मित हुआ है। संवेदना का शाब्दिक अर्थ है- सुख-दुःख का बोध, ज्ञान एवं अनुभव होना। इस लौकिक जगत में मनुष्य को सुखात्मक एवं दुखात्मक दोनों प्रकार की अनुभूतियों का अनुभव होता है। उसके यह अनुभव संवेदना कहलाते हैं। इसके विपरीत संवेदनहीनता का तात्पर्य है, संवेदनहीन होने का भाव या अवस्था, कठोरता या निर्ममता, क्रूरता आदि अथार्त किसी के दुःख-सुख का अनुभव न कर पाना। इस प्रकार किसी के प्रति दयाहीनता का भाव रखना ही संवेदनहीनता कहलाती है। नारी ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है, जिसे उसने बाहर से कोमल तथा भीतर से सहनशील बनाया है। हमारे समाज में चिरकाल से ही पुरुषों द्वारा नारी का शारीरिक, मानसिक, आर्थिक आदि विभिन्न प्रकार से शोषण देखने को मिलता है, जिसे साहित्यकारों ने अपनी लेखनी द्वारा साहित्य की विभिन्न विधाओं में व्यक्त किया है। साहित्य में स्त्री-विमर्श के आरम्भ होने के साथ ही स्त्री-लेखिकाएँ अपने समाज में नारी के साथ हो रहे भेद-भाव तथा स्वयं एक नारी की दूसरी नारी के प्रति संवेदनहीनता के प्रति सजग हुई, जिसे उन्होंने अपने साहित्य में जीवंतता के साथ उजागर किया। इन लेखिकाओं में ममता कालिया का स्थान सर्वोपरी है, इनकी माँ, उमस एवं शाल कहानियाँ इस सन्दर्भ में सार्थक सिद्ध होती हैं।

  • Title : संघर्षमय जीवन की महागाथा : मणिकर्णिका
    Author(s) : अपर्णा भारती
    KeyWords : अस्तित्व, संघर्ष, उच्च शिक्षा, जातिवाद, बौद्ध धर्म, मार्क्सवादी विचार, कम्युनिस्ट पार्टी, भुखमरी, गरीबी, आत्महत्या, भविष्य आदि
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    मणिकर्णिका आत्मकथा तुलसीराम के संघर्षमय जीवन की गाथा है। इसकी भूमिका में लेखक लिखते हैं-“बनारस की मणिकर्णिका किसी के भी अस्तित्व को हमेशा के लिए मिटा देती है किन्तु मेरे साथ एकदम उल्टा हुआ। बनारस में मेरा जन्म ही वहीं से शुरू हुआ, फिर भी मै उन चंद लोगों में शामिल हो गया, जो जीते जी शोकांजलि के शिकार हो गए।”1 उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए पैसे कमाने के लिए वह कलकत्ता काम करते हैं। भविष्य की चिंता उनके सामने बराबर बनी रहती है और फूट- फूटकर रोने पर मजबूर कर देती है। भविष्य की अनिश्चयता से ऊबकर कई बार आत्महत्या का ख्याल उनके मन में आता है किन्तु स्वयं पर बुद्ध का प्रभाव होने से आत्महत्या को पाप समझकर संघर्षों से जूझकर जीवन जीने की ललक उनके अंदर पैदा हो जाती है।

  • Title : ‘मलबे का मालिक’ कहानी में मानवीय मूल्यों का विघटन
    Author(s) : आशा देवी
    KeyWords : अकेलापन, मानसिक अंतर्द्वंद, आपसी संबंध का टकराव, और सांप्रदायिक विद्वेष
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    मोहन राकेश जी द्वारा लिखी कहानियों के अंतर्गत हम संबंधों की यंत्रणा और अकेलेपन को देखते हैं। ऐसा अकेलापन जो न केवल अकेले रहने पर महसूस किया जाता है बल्कि समाज में रहने के बावजूद भी व्यक्ति उस अकेलेपन से दूर नही हो पाता। राकेश जी ने यह अकेलापन अलग-अलग परिवेश के माध्यम से अपनी रचनाओं में अंकित किया है। मानसिक अंतर्द्वंद, आपसी संबंध का टकराव, और सांप्रदायिक विद्वेष तथा विभाजन की त्रासदी का दर्द भी इनकी कहानियों में सुनाई देता है। ‘मलबे का मालिक’ कहानी भी एक ऐसी ही कहानी है जिसमें विस्थापन की त्रासदी का दर्द तो है ही साथ ही मानवीय मूल्यों का विघटन भी उद्घघाटित होता है। यह एक ऐसी कहानी है जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थ वृत्ति के चलते इंसान किसी भी घर परिवार को तबाह कर सकता है। वह केवल दूसरों की संपत्ति को देखकर अपनी इंसानियत और सामाजिक संबंधों को कुचल देता है। इस समाज में जहाँ हम केवल पारिवारिक संबंधों को ही महत्व नहीं देते, सिर्फ़ उन्हें ही अपना नहीं समझते, बल्कि विश्वास के आधार पर सामाजिक संबंधों को भी पूरी तरह से जीते हैं। परंतु कभी कभी यह विश्वास हमारे लिए सही साबित नहीं हो पाता और संबंधों का विखराब हो जाता है। ‘मलबे का मालिक’ कहानी भी इन्हीं सामाजिक संबंधों के बिखराव को प्रस्तुत करती हुई दिखती है।