View Abstractआर्यावर्त के अमृत महोत्सव वर्ष में यातायात, बाँध, मंदिर एवं गबन चारों ओर दिखाई दे रहा है। कहीं न कहीं भक्ति के नाम लोगों की संवेदनाओं के साथ कालाबाजारी पहले से होती आ रही है। यातायात, बाँध, मंदिर, ताजमहल, अकबर का मकबरा के नाम भूमि अधिग्रहण की कला सिखाई गई, फकीर मोहन सेनापति के उपन्यास छ: बीघा जमीन के मारफत । बौद्धिक कांइयापन पहले से आर्यावर्त में बौद्ध बिहार एवं जैन देरासर के मारफत मौजूद रहा। दास, सामंती, पूँजीवादी लोकतांत्रिक या निगमिक पूँजीवादी का लेवल लगाकर सांस्कृतिक राष्ट्र को नया कलेवर देनेवाले निजीकरण, बाजारीकरण एवं वैश्वीकरण के नाम लोगों को बरगलाया जा रहा है। छ: बीघा जमीन उपन्यास में सत्ताईस अध्याय एवं उपसंहर हैं। रामचंद्र, मंगराज जैसे लोग हर युग में लोगों को उल्लू बनाते रहे या यों कहें बिचौलियों का ही बोलबाला समग्र विश्व में व्याप्त है। रंगभूमि का सूरदास, गोदान का होरी लड़ता है। नर्मदा बाँध में मेधा पाटेकर एवं अरुंधति रॉय का लड़ने का ढंग बिल्कुल अलग है या लड़ने वाले भी सरकार के मोहरे बनते जा रहे हैं। भक्ति आंदोलन के चलते भारतीय भाषाएँ तो प्रकाश में आई परंतु भारतीय भाषाओं को घाट लगाने का काम अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा कर रही है। डॉ. के.सी. भट्टाचार्य की किताब ‘उड़िया भाषा नय' पढ़ने के बाद ब्रजमोहन सेनापति उर्फ, फकीर मोहन सेनापति तिलमिला गए और उड़िया भाषा में लिखना शुरू किए। भक्तिकाल के पहले कितनी भारतीय भाषाएँ प्रकाश में थीं, इसका भी लेखा-जोखा किया जाना चाहिए। यानी भाषा भी उपनिवेश, नवउपनिवेश और उत्तर सांस्कृतिक उपनिवेश का सबसे बड़ा हथकण्डा है।