Volume: 49 2023

  • Title : सम्पादकीय
    Author(s) : प्रो. ज़ाहिदा जबीन
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  • Title : विषय सूची
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  • Title : कश्मीरियत का स्वर
    Author(s) : प्रो. विनोद कुमार तनेजा
    KeyWords : जम्हूरियत, इंसानियत, कश्मीरियत
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    एक जमाना था, जब कश्मीर त्रिकदर्शन अथवा शैव-दर्शन के लिए जाना जाता था। अभिनवगुप्त का मानना है कि आनंद ही आत्मा का ऐश्वर्य है तथा सृष्टि का परम तत्व है। वह अनादि है, सनातन है, उसकी उत्पत्ति नहीं होती, अभिव्यक्ति होती है । बाद में जब कश्मीर में सूफीसन्तों का अभ्युदय हुआ तो उनकी वाणी में भी यह स्वर गूँजता रहा । यहाँ हम कश्मीर के संस्कृत साहित्य की बात नहीं कर रहे, जो भारतीय-संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। अ

  • Title : ‘वाया रावलपिंडी’ से गुज़रते हुए
    Author(s) : प्रो. रूबी जुत्शी
    KeyWords : ‘वाया रावलपिंडी’ उपन्यास की समीक्षा
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    प्रस्तुत उपन्यास ‘वाया रावलपिंडी’ शीर्षक स्वयं में ही इतना सशक्त है कि पाठक के मन-मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ देता है। लेखिका गरिमा गारेखान और अनुवादक रजनीकांत एस.शाह के सफ़ल प्रयासों से यह उपन्यास हिन्दी की गद्य-विधा कथा-साहित्य में उभरकर सामने आया है और अपना स्थान बना लिया है। इस उपन्यास में ‘वत्सलभाई’ एक डाइबटीज़ के मरीज़ हैं जो एक बार हल्के हार्ट अटैक का शिकार हो चुके हैं। अपनी पुत्री स्तुति के संग अमरीका से दुबई की ओर जा रहे वत्सलभाई हवाई जहाज़ में सीवियर हार्ट अटैक के शिकार हो जाते हैं।

  • Title : व्यापार मंदिर, गबन बनाम छः बीघा जमीन
    Author(s) : प्रो. शिव प्रसाद शुक्ल
    KeyWords : मंदिर, व्यापार, आस्था, अमृत महोत्सव, पाखण्ड, पूंजीवाद
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    आर्यावर्त के अमृत महोत्सव वर्ष में यातायात, बाँध, मंदिर एवं गबन चारों ओर दिखाई दे रहा है। कहीं न कहीं भक्ति के नाम लोगों की संवेदनाओं के साथ कालाबाजारी पहले से होती आ रही है। यातायात, बाँध, मंदिर, ताजमहल, अकबर का मकबरा के नाम भूमि अधिग्रहण की कला सिखाई गई, फकीर मोहन सेनापति के उपन्यास छ: बीघा जमीन के मारफत । बौद्धिक कांइयापन पहले से आर्यावर्त में बौद्ध बिहार एवं जैन देरासर के मारफत मौजूद रहा। दास, सामंती, पूँजीवादी लोकतांत्रिक या निगमिक पूँजीवादी का लेवल लगाकर सांस्कृतिक राष्ट्र को नया कलेवर देनेवाले निजीकरण, बाजारीकरण एवं वैश्वीकरण के नाम लोगों को बरगलाया जा रहा है। छ: बीघा जमीन उपन्यास में सत्ताईस अध्याय एवं उपसंहर हैं। रामचंद्र, मंगराज जैसे लोग हर युग में लोगों को उल्लू बनाते रहे या यों कहें बिचौलियों का ही बोलबाला समग्र विश्व में व्याप्त है। रंगभूमि का सूरदास, गोदान का होरी लड़ता है। नर्मदा बाँध में मेधा पाटेकर एवं अरुंधति रॉय का लड़ने का ढंग बिल्कुल अलग है या लड़ने वाले भी सरकार के मोहरे बनते जा रहे हैं। भक्ति आंदोलन के चलते भारतीय भाषाएँ तो प्रकाश में आई परंतु भारतीय भाषाओं को घाट लगाने का काम अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा कर रही है। डॉ. के.सी. भट्टाचार्य की किताब ‘उड़िया भाषा नय' पढ़ने के बाद ब्रजमोहन सेनापति उर्फ, फकीर मोहन सेनापति तिलमिला गए और उड़िया भाषा में लिखना शुरू किए। भक्तिकाल के पहले कितनी भारतीय भाषाएँ प्रकाश में थीं, इसका भी लेखा-जोखा किया जाना चाहिए। यानी भाषा भी उपनिवेश, नवउपनिवेश और उत्तर सांस्कृतिक उपनिवेश का सबसे बड़ा हथकण्डा है।

  • Title : अमृतलाल नागर के उपन्यासों में नारी जीवन की समस्याओं के विभिन्न पक्ष
    Author(s) : प्रो. ज़ाहिदा जबीन एवं डॉ. मुदस्सिर अहमद भट्ट
    KeyWords : अमृतलाल नागर, समाजिक समस्या, मानव-धर्म, नारी जीवन, शोषण, अत्याचार
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    मानव समाज चाहे सभ्य समाज हो या असभ्य, शिक्षित हो या अशिक्षित अथवा विकसित समाज हो या विकासशील समाज, उसमें कोई-न-कोई समस्या सदैव विद्यमान रही है। जिन अवांछनीय एवं अनुचित व्यवहारों से सामाजिक व्यवस्था में बाधा उत्पन्न होती है उन्हें समस्या कहा जाता है और सामाजिक संगठन, सामाजिक संरचना या मानवीय संबंधों में जो समस्याएँ उत्पन्न होती हैं उन्हें सामाजिक समस्याएँ कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जिन समस्याओं को समाज के अधिकांश सदस्य सामाजिक आदर्शों, मूल्यों, प्रथाओं आदि के लिए खतरनाक मानते हों वही समस्याएँ सामाजिक समस्याएँ कहलाती हैं। सामाजिक समस्याएँ सदैव विघटनमूलक होती हैं। इनसे समाज में बिखराव एवं तनाव उत्पन्न हो सकता है तथा नियमित एवं सामान्य जीवन बुरी तरह प्रभावित हो सकता है। भारतीय समाज में प्रचलित अनेक प्रथाओं एवं परम्पराओं ने विभिन्न सामाजिक समस्याओं को जन्म दिया है। जैसे ज़मींदारों द्वारा कृषकों पर हुए शोषण से निर्धनता का जन्म हुआ तथा धर्म के नाम पर उच्च वर्ग द्वारा निम्न वर्ग पर किए गए अत्याचारों से जातिवाद की समस्या का जन्म हुआ।

  • Title : जम्मू-कश्मीर में राम-काव्य
    Author(s) : प्रो. रसाल सिंह एवं आर. आशा
    KeyWords : जम्मू, कश्मीर, राम-काव्य, आस्था, भक्ति, भक्तिकाल, आदर्श
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    भारतीय चेतना में श्रीराम न केवल ईश्वर के रूप में विराजमान हैं, बल्कि संपूर्ण मानव-जाति को ज्ञान और आदर्श का पाठ पढ़ाने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम भी हैं । राम शब्द अपनी परिपूर्णता में भारतीय संस्कृति को दर्शाता है । उन्होंने पूरे देश को एकसूत्र किया है । संपूर्ण भारतीय समाज में उनका आदर्श रूप पूर्व से लेकर पश्चिम तथा उत्तर से लेकर दक्षिण के सभी हिस्सों में भिन्न स्वरूपों में उपस्थित है ।

  • Title : संवेदना से परिपूर्ण ‘केदारनाथ आपदा की सच्ची कहानियाँ
    Author(s) : प्रो.(डॉ.) ज़ोहरा अफ़ज़ल एवं डॉ. अमृता सिंह
    KeyWords : केदारनाथ, आपदा, मानवीयता
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    दैवीय आपदा के आने तथा उससे होने वाली क्षति का अनुमान लगाना मानव जाति के लिए असंभव है| भूकंप, बाढ़, अतिवृष्टि (बहुत अधिक वर्षा), अनावृष्टि (सूखा या अकाल), भूस्खलन, बिजली गिरना, बादलों का फटना जैसी विपती या त्रासदी के आने पर जनजीवन सदा ही प्रभावित होता रहता है| केदारनाथ, बदरीनाथ, हेमकुंड साहिब, उत्तराखंड सहित अनेक स्थलों पर बरपा विनाश सम्पूर्ण मानव जाति को अंदर तक झकझोर कर चला गया| आपदाग्रस्त केदारनाथ क्षेत्र से संबंधित ये कहानियाँ एक ओर मानवीयता के उजले तो दूसरे ओर श्याम पक्ष को सफलतापूर्ण दर्शाती हैं| ये कहानियाँ जीवन के इस सत्य को भी उजागर करती हैं कि जीवन कभी रुकता नहीं जिसका सशक्त उदाहरण हैं आपदा पीड़ित लोग जो किसी प्रकार स्वयं को संभालकर नए ढंग से अपने सवजनों तथा स्वयं के लिए जीवन की नई सुरुआत करते हैं|

  • Title : अभिमन्यु अनत के कथा साहित्य में युगीन परिदृश्य
    Author(s) : डॉ. दिनेश कुमार गुप्ता
    KeyWords : अभिमन्यु अनत, कथा साहित्य, युगीन परिदृश्य।
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    अभिमन्यु अनत के रचना संसार की जो विशिष्टता मुझे लगातार आप्लावित और आकर्षित करती रही है, वह है साधारण में से असाधारण का अन्वेषण। मुहावरे की भाषा में कहूँ तो इसे साधारण की विशिष्टता कहा जा सकता है। अभिमन्यु के रचनात्मक भूगोल में ग्राम समाज, मजदूर वर्ग, मध्य वर्ग, अपनी निपट मजबूरियों में भी उत्सव तलाश लेने वाले उखड़े हुए लोग, रुके हुए लोग, मानसिक, आत्मिक और अपने अस्तित्व की जिरह में उलझी और नया रास्ता तलाशती औरतें, यथास्थिति के तंत्र से टकराते विचारशील व्यक्ति-सब मौजूद हैं यहाँ। साथ ही उनका यथार्थ और साधारण प्रसंगों में छिपे एवं अनकहे संस्कृति के बड़े प्रसंग उसी तरह शब्दों की सतहों में पैबस्त हैं जैसे नदी, तालाबों में मछलियाँ रहती हैं... और फिर शब्द संवेदना और कला का सहज समायोजन। अभिमन्यु अनत अपने देश के भूमि पुत्र हैं तथा अपनी जातीय परम्परा के राष्ट्रीय उपन्यासकार हैं। मॉरिशस की भूमि, वहाँ की संस्कृति, वहाँ के अंचल, वहाँ की सन्तानें सभी उनकी लेखकीय आत्मा के अंग हैं। वे अपने देश के वर्तमान की त्रासदियों, क्रियाकलापों, औपनिवेशिक दबाव और विसंस्कृतिकरण की दुष्प्रवृत्तियों का बड़ी यथार्थता के साथ उद्घाटन करते हैं तथा जीवन मूल्यों तथा आदर्शवाद को साथ लेकर चलते हैं। उन्होंने कई बार अपनी लेखनी के माध्यम से सत्ता को चुनौती प्रदान की। उन्हें कभी भी सत्ता का भय आक्रांत नहीं कर पाया। उनकी लेखनी में सदैव मॉरिशस के आमजन की परेशानियों को उकेरा जाता रहा है।

  • Title : गुरू जम्भेश्वर का कर्म योग सिद्धान्त
    Author(s) : डॉ. नरेश कुमार सिहाग
    KeyWords : कर्म, योग, गीता, सिद्धांत, धर्म, गुरू, दर्शन।
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    भारतीय धर्म साधना में परमार्थ लाभ के लिए ज्ञान, योग और भक्ति तीन मार्ग बतलाए हैं। ये तीनों ही मार्ग अपने-अपने स्थान पर अपने आप में श्रेष्ठ हैं। वैदिक धर्म में कर्मसिद्धान्त को ‘ऋत’ कहा गया है। जिसका अर्थ होता है ‘जगत की व्यवस्था’। इस व्यवस्था में नैतिक व्यवस्था भी समाविष्ट है। यह ऋत का विचार उपनिषद् दर्शन में कर्मवाद का रूप ले लेता है। न्याय वैशेषिक दर्शन में कर्म सिद्धान्त को अदृष्ट कहा जाता है। क्योंकि यह दृष्टिगोचर नहीं होता। विश्व की समस्त वस्तुएं यहां तक कि परमाणु भी इस नियम से प्रभावित होते हैं। मीमांसा दर्शन में कर्म सिद्धान्त को अपूर्व कहा जाता है। न्याय दर्शन व वैशेषिक दर्शन में अदृष्ट का संचालन ईश्वर के अधीन है। परन्तु मीमांसा दर्शन मानता है कि कर्म सिद्धान्त स्वचालित है। कर्म किसी उद्देश्य की भावना से किये जाते हैं। निष्काम कर्म, कर्म सिद्धान्त से स्वतंत्र है। वैसे तो कर्म शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है। साधारणतः कर्म शब्द का प्रयोग कर्म सिद्धान्त के रूप में होता है। हिन्दु धर्म में वर्णित कर्म सिद्धान्त को जैन बौद्धों में भी मान्यता मिली है। जहाँ तक कर्म सिद्धान्त का सम्बन्ध है जिनका बौद्ध धर्म, जैन धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म में भी कर्म सिद्धान्त पर बल दिया गया।

  • Title : जीवन-मृत्यु : एक विवेचन
    Author(s) : डॉ. नसरीन जान
    KeyWords : जीवन मृत्यु, रक्तदान, साहयता, मानवता, भाईचारा
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    रक्तदान एक ऐसी प्रथा को संदर्भित करता है जहाँ लोग अपना स्वस्थ रक्त लोगों को दान करते हैं । यह मानवता का प्रतीक है जो विभिन्न धर्म व जाति के लोगों को एकजुट करने में सहायता करता है। इस जीवन रक्षक प्रक्रिया के प्रति जागरूकता बढ़ाने हेतु विश्व स्वास्थ संगठन (WHO) ने वर्ष 1997 से 14 जून को विश्व रक्त दिवस मनाने की घोषणा की । यह दिवस नोबल पुरस्कार प्राप्त कार्ल लैंडस्टाईन की याद में पूरे विश्व में मनाया जाता हैं, जिनका जन्म 14 जून 1968 को हुआ था । कार्ल लैंडस्टाईन ने ही मनुष्य के खून में उपस्थित एग्ल्युटिनिन की मौजूदगी के आधार पर रक्तकणों का ए, बी और ओ समुह में वर्गीकरण किया।

  • Title : नई सदी में साहित्य को मुस्लिम लेखकों की देन
    Author(s) : डॉ. शाज़िया बशीर
    KeyWords : उपन्यास, मुस्लिम उपन्यासकार, मुस्लिम समाज, संस्कृति, आधुनिकता, नई सदी
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    उपन्यास मानव जीवन का दर्पण है जिसमें व्यक्ति के बहुमुखी व्यक्तित्त्व को एक व्यापक धरातल पर अभिव्यक्त किया जाता है। उपन्यास समाज और व्यक्ति के बीच एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है या यों कह सकते हैं कि समाज में जब-जब, जहाँ- जहाँ और जैसे-जैसे जो कुछ भी घटित हुआ है उपन्यासों में उसकी झलक अवश्य मिलती है। फिर चाहे वह पौराणिक मूल्यों के विघटन का खेद हो या नवीन मूल्यों की स्थापना के प्रति आक्रोश। अबला नारी की ममता और त्यागम्य छवि से लेकर अबला नारी की क्रान्तिकारी सोच का समर्थन। विभाजन की त्रासदी का मातम हो या विभाजन के पीछे छिपा राजनीतिज्ञों का गंदा और घिनौना स्वार्थ। बलात्कार और यौन शोषण जैसे संवेदनशील विषयों से लेकर बालविवाह तथा सती प्रथा आदि सामाजिक मुद्दों से लेकर भ्रष्ठाचार. भार्ईभतीजावाद और सत्ता लोलुपता आदि राजनीतिक मुद्दे उपन्यासकारों की पैनी दृष्टि से नहीं बच सके हैं। खैर समाज ने जब-जब करवट बदली है हमारे उपन्यासकार तब-तब उस करवट को अपने उपन्यासों में अमर करते चले गए हैं और हिन्दी साहित्य को इतना विस्तार मिला कि तभी आज हमारा साहित्य अपनी विश्व पहचान रखता है।

  • Title : कविता शिक्षण और उसकी विभिन्न विधियाँ
    Author(s) : डॉ. सलमा
    KeyWords : कविता शिक्षण, साहित्यिक विधा, सौन्दर्यबोध, पाठ्यक्रम, शिक्षणविधियाँ, अभिनय, समीक्षा, गीत
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    किसी भी प्रकार के शिक्षण के समान कविता शिक्षण के द्वारा भी विद्यार्थियों के भाषा ज्ञान तथा अन्य प्रकार के ज्ञान में वृद्धि होती है। यदि कविता भाषा का भाव-तत्त्व एवं कला तत्त्व दोनों शक्तिशाली हो तो उसका ह्रदय पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। कविता के शिक्षण से बालकों में अपने धर्म, देश, जाति, मानवता तथा अन्य नैतिक धारणाओं के प्रति अनुकूल अभिवृत्तियों के निर्माण करने में बहुत सहायता मिलती है। कविता का शिक्षण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि छात्र उसका अर्थ एवं भाव दोनों समझ सकें। इसके अतिरिक्त कविता के शिक्षण द्वारा छात्रों को कविता के रस, आनन्द तथा यदि हो सके तो, परम आनन्द की अनुभूति भी करायी जानी चाहिए। छात्रों को जिन विषयों पर लिखी हुई कविताएँ पढ़ाई जाती हैं उसी के अनुरूप भावों व विचारों का निर्माण होता है।

  • Title : बिहार के संथाल जनजातियों की कला परंपरा एवं संरक्षण की चुनौतियाँ
    Author(s) : डॉ. आशीष कुमार
    KeyWords : आदिवासी, लोक कला, कला परंपरा, संथाल
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    संथाल बिहार व झारखंड राज्य की एक प्रमुख जनजाति है, जो मुख्य रूप से संथाल परगना प्रमंडल एवं पश्चिमी व पूर्वी सिंहभूम, हजारीबाग, रामगढ़, धनबाद तथा गिरीडीह जिलों में निवास करती है। इसकी कुछ आबादी बिहार राज्य के भागलपुर पूर्णिया, सहरसा तथा मुंगेर प्रमंडल में भी पायी जाती है। जनजातीय कला जनजातीय लोगों के कौशल ऊर्जा को दिखाती है। संथाल संगीत व नृत्य के बड़े ही प्रेमी होते हैं। बंसी, ढोल, नगाड़े, केन्दरा इत्यादि इनके प्रमुख वाद्य यंत्र है। विवाह तथा अन्य उत्सवों पर वे संगीत तथा नृत्य में विभोर हो जाते हैं। इसके लोक संगीत कर्णप्रिय तथा लोक गीत जीवन के अनुभवों में पगे होते हैं। नगाड़े के थाप पर इनके लोक नृत्य जीवन की मधुरिमा बिखेरते हैं। संथाल लोक चित्रकला भारत की ऐतिहासिक कला है। यह कला केवल पेशे के लिए नहीं की जाती है बल्कि कला आनंद लेने और उत्सव मनाने के लिए भी है। इस कला के मुख्य विषय मूल रूप से विवाह, नृत्य, पारिवारिक जीवन, कर्मकांड, फसल, संगीत, प्रकृति, दैनिक गतिविधियाँ और जीव-जंतु हैं। संथाल का रंग पाटा या कपड़े पर किया जाता है। संथाल पहले प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करते थे जो कई पत्तियों और फूलों से तैयार होते थे।

  • Title : आधुनिक हिंदी कविता में विश्व इतिहास की झलकियाँ (प्रमुख राजनीतिक घटनाओं के सन्दर्भ में)
    Author(s) : इंदरप्रीत कौर
    KeyWords : आधुनिकता, भारतेंदु , द्विवेदी, छायावाद, प्रगतिवादी काव्य, वैश्विक राजनीतिक घटनाएँ
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    आधुनिकता एक अवधारणा है जिसकी अनुगूँज समाज के साथ-साथ साहित्य में भी सुनाई देती है| यह आधुनिकता राष्ट्र की सीमाओं के बंधन को तोड़कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी फलित होती है| ऐसे में आधुनिक साहित्य न केवल राष्ट्र की घटनाओं से बल्कि अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं से भी प्रभावित होता है| किसी भी भाषा में लिखे गए साहित्य का मूल्यांकन करने के लिए, कि वह कितना सामयिक है, जरूरी है कि साहित्य की परिधि का विस्तार किया जायें तथा यह देखा जायें कि साहित्य अपने भीतर वैश्विक घटनाओं को कैसे समाहित करता है तथा उस पर प्रतिक्रिया कैसे करता है| मेरा आलेख आधुनिक हिंदी कविता की वैश्विक समझ को प्रतिबिंबित करने का छोटा सा प्रयास है|

  • Title : यमदीप एक अध्ययन
    Author(s) : जीत कौर
    KeyWords : हिजड़ा, आर्थिक विपन्नता, खैरगल्ले, टेपकी, शोषण, मण्डली, भूख, कुमार्ग, कनबासी, बड़का, भ्रष्टाचार, देह-व्यापार, बुचरा माता इत्यादि।
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    यमदीप नीरजा माधव का प्रथम उपन्यास है जो वर्ष 2002 में सामयिक प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास मुख्यत: दो कथाओं को आधार बनाकर लिखा गया है जिसे लेखिका ने छ्ब्बीस भागों में विभक्त किया है। पहली कथा किन्नर-वर्ग के जीवन व समाज पर आधारित है जो दीर्घकाल से हाशिए का जीवन व्यतीत करने पर विवश हैं तथा अपनी अधूरी देह के कारण समाज के पग-पग पर तिरस्कृत होना पड़ता है। दूसरी कथा स्त्री पर आधारित है जो समाज में अपनी अस्मिता के लिए छटपटाती हुई नज़र आती है। आज के समय में यदि देखा जाए तो स्त्री ने सफलता की ऊंचाइयों पर अपने कदम रखे हैं। बहुत सी महिलाएँ आत्मनिर्भर हैं परन्तु फिर भी कहीं-न-कहीं वह अपनी अस्मिता के लिए आज भी संघर्ष करती दिखाई पड़ती है, जिसका मार्मिक वर्णन लेखिका ने किया है। उपन्यास में किन्नर समुदाय के अंतरंग जीवन, उनके समुदाय से जुड़े रीति-रिवाज, उनके साथ होने वाले शोषण, उनकी भीतरी वेदना तथा समाज का हृदयस्पर्शी वर्णन डॉ. नीरजा माधव ने इस उपन्यास के माध्यम से किया है।

  • Title : समकालीन कविता की प्रकृति और सैद्धांतिकी [विशेष संदर्भ- धूमिल, आलोकधन्वा, और भगवत रावत]
    Author(s) : -विक्रम कुमार
    KeyWords : समकालीन कविता, भूमंडलीकरण, अस्सी का दशक, नागरिक, लोकतंत्र, युगबोध, स्त्री, परंपरा, आपातकाल और साम्राज्यवाद
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    हिंदी कविता की एक विस्तृत परंपरा रही है। यह यात्रा आदिकाल से आरंभ होकर समकालीन कविता तक पहुंच चुकी है। समकालीन कविता का फ़लक बहुत ही विस्तीर्ण है। मुख्य सवाल यह है कि आखिर समकालीन कविता का आरंभ कबसे माना जाए? समकालीन कविता ने समाज के सभी भाव-भूमि और संवेदनाओं को महत्वपूर्ण आधार बनाया है। समकालीन कविता मनुष्य को वृहत्तर संवेदनाओं से जोड़ता है। आज हमलोग जिस दौर में हैं वहाँ मनुष्य होने की प्रक्रिया लगातार क्षीण हो रही है। आज भूमंडलीकरण जब दुनिया की हरेक सुंदर वस्तु को कमोडिटी में तब्दील कर देने को आतुर है तब समकालीन कविता हमें एक जिम्मेदार नागरिक की ओर ले जाती है। ऐसे दौर में इस टूटती बिखरती दुनिया को समकालीन कविता ने मजबूती से रेखांकित किया है। दुनिया के सामने समकालीन कविता एक नवबोध और युगबोध का लोकवृत रचती है। समकालीन कविता की इस लोकवृत को धूमिल, आलोकधन्वा और भगवत रावत की कविताओं के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे। भूमंडलीकरण और वर्तमान की चुनौतियों को जिस तरह समकालीन कविता दर्ज करती है, वह बहुत ही सार्थक है। समकालीन कविता की चिंताएं विस्तृत और गहरी हैं जो इस काव्य को महत्वपूर्ण बनाती है।

  • Title : भाषा से धनी और भाषा से संतप्त: सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक
    Author(s) : मृत्युंजय प्रभाकर
    KeyWords : हिंदी नाटक, सुरेन्द्र वर्मा, आधुनिक हिंदी नाटक, नाट्य पाठ और प्रदर्शन, स्त्री-पुरुष संबंध और नाटक, आधुनिक हिंदी नाट्य परंपरा
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    सुरेन्द्र वर्मा हिंदी नाटकों की समृद्ध परम्परा में शामिल वह नाम है जिनके नाम लगभग दर्जन भर नाटक दर्ज हैं। उनके महत्वपूर्ण नाटकों में ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’, ‘आठवाँ सर्ग’, ‘शकुंतला की अंगूठी’, ‘क़ैद–ए–हयात’, ‘रति का कंगन’, ‘मरणोपरांत’, ‘नींद क्यों रात भर नहीं आती’, ‘मुग़ल महाभारत: नाट्य चतुष्टय’ आदि महत्वपूर्ण नाटक शामिल हैं। वह हिंदी के ऐसे अकेले और अनोखे नाटककार हैं जो पचास से भी अधिक वर्षों से निरंतर नाटक लिखते आ रहे हैं। आरंभिक तौर पर उनके नाटक बहुत जगहों पर खेले भी गए. गणमान्य निर्देशकों और संस्थाओं के जरिए उनके नाटकों के मंचन हुए। लेकिन एक समय के बाद उनके नाटक अब न के बराबर खेले जाते हैं। आखिर, उसकी क्या वजह हो सकती है. यह आलेख उनके नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ के जरिए इसी पड़ताल की कोशिश है।