View Abstractसारांश : वर्तमान युग में सिनेमा समय-समाज का दर्पण बनकर सामने आया है। सिनेमा का उदय साहित्य से हुआ है। साहित्य के बिना सिनेमा की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। समाज में जो कुछ भी घटित होता है, चाहे वो सामाजिक, राजनैतिक, पारिवारिक, प्रेम-प्रसंग का विषय, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में अंतराल, माता-पिता और बच्चों की सोच में अंतराल और विस्थापन आदि समस्याओं को बड़े पर्दे पर दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। सिनेमा एक ऐसी कला है, जो दृश्य-श्रव्य के साथ प्रस्तुत होती है। “हमारे यहाँ निरक्षता आज भी है, लेकिन वे सिर्फ कहने भर को साक्षर हैं। उन तक पत्र-पत्रिकाएँ या साहित्य नहीं पहुँच सकता, लेकिन सिनेमा उन तक पहुँचता है और पहुँचता रहेगा। ऐसे समाज में सिनेमा जैसे माध्यम के असर की कल्पना की जानी चाहिए।” समाज में समय के संरचना एवं प्रवृतियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। सिनेमा ने इन परिवर्तनों को पर्दे पर उतारा है। स्त्री समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा है। स्त्री के बिना समाज व देश के विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। सदियों से स्त्री संघर्ष करती आ रही है। समाज में स्त्रियों की स्थिति उनके अधिकारों की स्वीकार्यता, पुरुषवादी मनोवृतियों से उनका टकराव, इनके प्रति स्त्री का प्रतिरोध जैसे मुद्दों को सिनेमा में प्रतिबिम्बित किया है। हिन्दी सिनेमा में स्त्री आरंभ से ही केन्द्र में रही है। फ़िल्म में स्त्री – माँ, पत्नी, बहन, प्रेमिका, देवी, खलनायिका आदि अनेक रूपों में अपनी उपस्थिति दर्जा करवाती आ रही है। हिन्दी सिनेमा के आरंभिक दौर में स्त्रियों को बहुत ही पारम्परिक एवं घरेलू रूप में दिखाया गया है लेकिन निर्देशकों ने साहस करके उन्हें पारम्परिक भूमिका से बाहर निकाल कर उनके व्यक्तित्व के सशक्त पक्ष को दर्शकों के सामने दिखाने का प्रयास किया है। “समाज की भूल”(1934), “देवदास”(1935), “बाल-योगिनी”(1936), “आदमी”(1939), “दुनिया न माने”(1937),“अछूतकन्या”(1936),“दहेज”(1950),“पतिपरमेश्वर”(1958), “हकीकत”(1964),
“पूरब और पश्चिम”(1970)“कर्मा”(1986),“आदमी”(1993), जैसी फिल्मों में स्त्री की भूमिका घर-परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती नज़र आती है। बीसवीं सदी में आते-आते स्त्री की स्थिति में सुधार आया और अब नायिका अपनी भूमिकाओं और पटकथा का चुनाव करने लगी। इक्कीसवीं सदी में हिन्दी सिनेमा की विषयवस्तु और भी परिपक्क और प्रौढ़ हुई और स्त्री जीवन से जुड़े विविध आयाम और समस्याओं को हिन्दी सिनेमा ने अपनी विषयवस्तु का आधार बनाया। स्त्री का दायित्व प्रमुख रूप से परिवार के प्रति है, जबकि स्त्री अपनी अस्मिता को पहचान कर विस्तृत भूमि की मांग करती है। स्त्री की पीड़ा और उनके अधिकारों की लड़ाई की साझेदारी में हिन्दी सिनेमा ने साथ दिया है चाहे वह किसी भी स्तर पर किसी भी रूप में हो। आज के समय की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता स्त्री सशक्तिकरण की है। हिन्दी सिनेमा में स्त्री केंद्रित फिल्मों का प्रभाव व्यापक रूप से समाज पर पड़ा है। हिन्दी सिनेमा ने स्त्री सशक्तिकरण के रूप को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुआ है। स्त्री केंद्रित फिल्मों के माध्यम से समाज की अन्य स्त्रियों पर प्रभाव डालकर उन्हें एक नई पहचान दी है। सिनेमा में स्त्री का स्पष्ट विकास तथा विभिन्न पक्षों पर व्यापक और बेहतरीन बदलाव देखने को मिलते है। इस लेख को हिन्दी सिनेमा की इक्कीसवीं सदी में प्रदर्शित हुई उन फिल्मों को आधार बनाया गया हैं जिन्होनें स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका दी हैं और समाज की अन्य स्त्रियों के जीवन में नवीन चेतना का सृजन किया हैं उन्हें नई राह दिखाई हैं और समाज की पुरुषवादी मानसिकता की मान्यताओं को तोड़कर नई भावभूमि का निर्माण किया हैं।